"अंधे का बेटा अंधा"महाभारत को लेकर लोक में प्रचलित भ्रांतियां

द्रौपदी ने कभी कहा ही नहीं 'अंधे का बेटा अंधा'

महाभारत को लेकर लोक में प्रचलित भ्रांतियों में सबसे अधिक आपत्तिजनक और अक्षम्य भ्रांति है महायुद्ध का आरोप देवी द्रौपदी के उस 'कटु वचन' पर थोप देना जिसमें उन्होंने कथित रूप से दुर्योधन को 'अंधे का बेटा अंधा' कहा था। मान्यता है कि इंद्रप्रस्थ की स्थापना के समय युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पहुँचा दुर्योधन जब मयदानव निर्मित 'माया भवन' में गिरा तो द्रौपदी ने यह कहते हुए उसकी हँसी उड़ाई थी कि 'अंधस्य अंधो वै पुत्र:!' इस लोकोक्ति के उलट सच तो यह है कि इस तरह की कोई पंक्ति महाभारत में है ही नहीं। न द्रौपदी ने कभी दुर्योधन की हँसी उड़ाई, न अंधे का बेटा कहा। यहाँ तक कि जब दुर्योधन माया महल में गिरा उस समय द्रौपदी वहाँ उपस्थित तक नहीं थी। 

नारी सम्मान को आहत करने वाली इसी निपट झूठी मान्यता के सत्य की पड़ताल महाभारत के अनेक अध्येताओं ने समय-समय पर की है। इसी कड़ी में जब गीताप्रेस गोरखपुर के छह खण्डों वाले एक लाख 217 श्लोक के ग्रन्थ में मैंने इस 'सत्य' को खोजने का प्रयास किया तो जो प्रमाण मिले वे चौकाने वाले है। 

इस पूरे प्रसङ्ग का पहला उल्लेख महाकाव्य के आदिपर्व के पहले अध्याय 'अनुक्रमणिका पर्व' के 136वें श्लोक में है। 

ध्यान रहे महाभारत महर्षि वेदव्यास ने लिखी थी लेकिन उसकी कथा पहली बार जनमेजय के सर्पयज्ञ में सुनाई गई थी। उस यज्ञ में महाभारतकार चिरंजीवी महर्षि वेद व्यास भी पहुँचे थे जिनसे जनमेजय ने अपने पूर्वजों की महागाथा सुनाने का अनुरोध किया था। तब तक व्यासजी वयोवृद्ध हो चुके थे अतः उनकी आज्ञा पर उनके शिष्य महर्षि वैशम्पायन ने सर्पयज्ञ के अवकाश काल में जनमेजय सहित राजाओं व ब्राह्मणों के बीच कथाकथन किया था। मतलब इस समय तक महाभारत की अंतर्कथा यज्ञशाला तक ही सीमित थी। लोक में वह तब पहुँची जब इसी सर्पयज्ञ में उपस्थित रहे लोमहर्षण पुत्र महर्षि उग्रश्रवा यज्ञ समाप्ति के बाद नैमिषारण्य पहुँचे।

पुराण प्रसिद्ध नैमिषारण्य में उस दौरान कुलपति महर्षि शौनक के सानिध्य में द्वादश वर्षीय सत्र चल रहा था जिसमें दस हजार जिज्ञासु सम्मिलित थे। इसी सत्र में शौनक जी के आग्रह पर पहली बार महर्षि उग्रश्रवा ने सार्वजनिक रूप से महाभारत की वह कथा सुनाई थी जो वे अभी-अभी जनमेजय के सर्पयज्ञ में सुनकर लौटे थे। माना जा सकता है कि यहीं एक साथ दस हजार से अधिक लोगों ने महाभारत को 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' की शैली में सुना भी और फिर आगे जन-जन को सुनाया भी।

यह बताने का उद्देश्य ये कि इस प्रथम प्रमाण में द्रौपदी का नाम ही नहीं है। जैसा कि 136वें श्लोक में महर्षि उग्रश्रवा ने कहा, 'तत्रावहसितश्चासीत् प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रामात् । प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमसेनाभिजातवत्।।' अर्थात युधिष्ठिर के उस सभाभवन में जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम होने के कारण दुर्योधन के पाँव फिसलने से लगे तब भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही भीम ने उसे गंवार-सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ाई थी।

इसके बाद इसी अध्याय के श्लोक क्रमांक 146 व 147 में इस घटना का दूसरा उल्लेख धृतराष्ट्र व संजय के बीच संवाद के हवाले से मिलता है। यहाँ धृतराष्ट्र अपने सारथी संजय से कह रहा है कि 'राजसूय यज्ञ में महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की सर्वोपरि समृद्धि-सम्पत्ति को देखकर तथा सभाभवन की सीढ़ियों को चढ़ते और उस भवन को देखते समय भीमसेन के द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्ष में भर गया था। युद्ध में पांडवों को हराने की शक्ति तो उसमें थी नहीं, इसलिए उसने पांडवों की संपत्ति हथियाने के लिए गान्धारराज शकुनि को साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलने का निश्चय किया।'

तीसरा उल्लेख आदिपर्व के ही दूसरे अध्याय 'पर्व संग्रह' में है जिसमें महाकाव्य के 18 मुख्य पर्वों में कही गई कथाओं का क्रमशः संक्षिप्त विवरण है। इसके श्लोक क्रमांक 136 में उपहास का मुख्य आरोपी भीम ही है। शब्द प्रमाण है कि 'यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च। दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले।।' अर्थात यज्ञ में पांडवों का वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईर्ष्या से मन ही मन जलने लगा। इसी प्रसङ्ग में भवन के सामने समतल भूमि पर भीमसेन ने उसका उपहास किया।

इन प्रारम्भिक उल्लेखों के बाद इस घटना का विस्तृत विवरण महाकाव्य के सभापर्व की धरोहर है। इसके 47 वें अध्याय में वह मूल कथा है जो सारे विवाद की जड़ है। मगर उसके शब्द-शब्द प्रमाणित करते हैं कि द्रौपदी तो तब वहाँ थी ही नहीं! 

कथा है कि राजसूय यज्ञ के बाद सारे अतिथि अपने-अपने घर लौट गए। भीष्म, धृतराष्ट्र, कर्ण, दुःशासन आदि कौरव भी हस्तिनापुर लौट आएं मगर 'दुर्योधनो महाराज शकुनिश्चापि सौबल:। सभायां रमणीयायां तत्रैवास्ते नराधिप।।' हे महाराज! दुर्योधन तथा सुबलपुत्र शकुनि ये दोनों उस रमणीय सभा में ही रह गए।

अनुमान लगाया जा सकता है कि सबके चले जाने के बावज़ूद दोनों कपटी मामा-भांजे के इंद्रप्रस्थ में पड़े रह जाने के पीछे क्या इरादा रहा होगा! अगले दिन दुर्योधन युधिष्ठिर की सभा के उन दिव्य अभिप्रायों ( दृश्यों ) को देखने निकला जो उसने पहले कभी नहीं देखे थे। घूमते हुए जब वह एक स्फटिक मणिमय स्थल पर पहुँचा तो वहाँ जल की आशंका में उसने अपना वस्त्र ऊपर उठा लिया। मगर वह जल नहीं था। इससे उसकी बुद्धि मोहग्रस्त हो गई और उसका मन उदास हो गया। खिन्न मन से वह दूसरे हिस्से में गया जहाँ स्थल पर ही गिर पड़ा। तब वह दूसरी बार दुःखी और मन ही मन लज्जित हुआ। कुछ ही देर बाद उसने तीसरा और चर्चित 'धोखा' खाया जब स्फटिक मणि के समान स्वच्छ जल से भरी और कमल पुष्पों से सुशोभित बावली को स्थल मानकर वह वस्त्र सहित जल में गिर पड़ा।

महर्षि वेदव्यास लिखते हैं 'जले निपतितं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबल:। जहास जहसुश्चैव किंकराश्च सुयोधनम्।। वासांसि च शुभान्यस्मै प्रददू राजशासनात्। तथागतं तू तं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबल:।। अर्जुनश्च यमौ चोभौ सर्वे ते प्राहसंस्तदा। नामर्षयत् ततस्तेषामवहासममर्षण:।।' अर्थात उसे जल में गिरा देख महाबली भीमसेन हँसने लगे। उनके सेवकों ने भी दुर्योधन की हँसी उड़ाई तथा राजाज्ञा से दुर्योधन को सुंदर वस्त्र दिए। दुर्योधन की यह दुरावस्था देख महाबली भीमसेन, अर्जुन और नकुल-सहदेव सभी जोर-जोर से हँसने लगे। दुर्योधन स्वभाव से ही अमर्षशील था, अतः वह उनका उपहास न सह सका।

विश्वास कीजिए इस बहुचर्चित घटना के बारे में ये तीन श्लोक ही वास्तविक 'प्रत्यक्षदर्शी प्रमाण' हैं। जो बताते हैं कि जब दुर्योधन गिरा तब मूलतः भीम ही हँसा था। उसके साथ अर्जुन व शेष दो भाई भी थे। अर्जुन जहाँ थे, वहीं श्रीकृष्ण भी रहे होंगे और निश्चित ही मोहन भी मनोहारी मुस्कान मुस्करा दिए होंगे। मगर इतना तो तय है कि युधिष्ठिर और द्रौपदी तब किसी सूरत में उपस्थित नहीं थे। यह भी कि कौरव-पांडवों में पहले दिन से झगड़े की जड़ भीम ही थे। भीम और दुर्योधन एक ही दिन, एक ही समय जन्मे थे मगर बाहुबल में दुर्योधन से बीसा होने के कारण भीम अक्सर दुर्योधन की मज़ाक बनाते थे और बचपन से ही बात-बात पर अकेले सभी 100 भाइयों को धो दिया करते थे। इस बार भी भीम ही हँसे थे। हालांकि अंधे का बेटा अंधा तो भीम ने भी न कहा था।

इस दिन भीगे वस्त्र बदलने के लिए भीम की आज्ञा पर दुर्योधन को नए वस्त्र दिए गए तब दुर्योधन ने स्वयं को अत्यधिक लज्जित अनुभव किया। जैसी कि सभापर्व के 47 वें अध्याय की कथा कहती है 'वह अपने भाव को छुपाए रखने के लिए भीम आदि की ओर दृष्टि तक नहीं डाल रहा था। फिर स्थल में ही जल का भ्रम होने से वह दोबारा कपड़े उठाकर इस प्रकार चलने लगा मानो तैरने की तैयारी कर रहा हो!'

'इस प्रकार जब वह ऊपर चढ़ा तब सब लोग उसे देख फिर हँसने लगे। उसके बाद दुर्योधन ने स्फटिक मणि का एक दरवाजा देखा। जो वास्तव में बंद था मगर खुला हुआ दिखता था। उसमें प्रवेश करते ही उसका सिर टकरा गया और उसे चक्कर-सा आ गया।'

'ठीक उसी तरह उसे एक दूसरा दरवाजा मिला जिसमें स्फटिक मणि के बड़े द्वार लगे थे। यद्यपि वह खुला था तो भी दुर्योधन ने उसे बंद समझकर उस पर दोनों हाथों से धक्का देना चाहा और धक्के से वह स्वयं द्वार के बाहर निकलकर गिर पड़ा। बार-बार धोखा खाकर अंततः अगले दिन वह युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर अप्रसन्न मन से शकुनि के साथ हस्तिनापुर के लिए रवाना हुआ।'

महत्वपूर्ण है कि कपट द्यूत का षड्यंत्र इंद्रप्रस्थ से हस्तिनापुर की राह में रचा गया था। मार्ग में गुमसुम दुर्योधन ने शकुनि के पूछने पर पांडवों के प्रति अपनी ईर्ष्या बयान करते हुए धमकी दी थी कि यदि पांडवों की संपत्ति 'न पा सका तो आग में प्रवेश कर जाऊँगा, विष खा लूँगा अथवा जल में डूब मरूँगा, पर जीवित न रह सकूँगा।' इसी आतुरता को देख शकुनि ने उसे द्यूत का रास्ता सुझाया था। शातिर शकुनि पासों के खेल का मंजा हुआ खिलाड़ी था। गान्धारराज जानता था कि युधिष्ठिर को जूए का खेल प्रिय है मगर वह उसे खेलना नहीं जानते हैं। 'द्यूतप्रियश्च कौन्तेयो न स जानाति देवितुम्!'

महाकाव्य का द्यूतपर्व साक्षी है कि हस्तिनापुर आकर शकुनि ने किस तरह अंधे राजा धृतराष्ट्र के कान भरे। उसने पुत्र मोह में 'अंधे' धृतराष्ट्र को दुर्योधन के मन की दुर्दशा इस कुटिलता से बयान की कि धृतराष्ट्र का जन्मजात दुर्बल चित्त और अधिक विचलित हो गया। इस पर जब धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को बात करने बुलाया तो वह जूए के लिए अड़ गया। राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर ने राजाओं से प्राप्त भेंट को राजकोष में व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी 'घर का आदमी' मानकर दुर्योधन को दी थी। इसलिए उसे पांडवों को मिली एक-एक चीज की जानकारी थी। उसने सबकी मानो सूची-सी पिता धृतराष्ट्र को सुना दी और न मिलने पर प्राणघात की चेतावनी दी।

धृतराष्ट्र कतई जूए के पक्ष में न था। दुर्योधन की ज़िद देख उसने ऐसा करने से पहले महामंत्री विदुरजी से सलाह करने को कहा लेकिन दुर्योधन राजी न हुआ। उस दिन पुत्र मोह के मारे धृतराष्ट्र ने जीवन में पहली बार बगैर विदुर की सम्मति लिए जूए की आज्ञा जारी कर दी। आदेश दिया कि 'जूए के लिए तत्काल सौ दरवाजे और एक हजार खम्बों वाला एक सभाभवन बनवाया जाए!'

मुद्दे की बात है जब द्रौपदी ने दुर्योधन को अंधे का पुत्र अंधा कहा ही नहीं तब यह बात आई कहाँ से ? तो उसका आधार इस प्रसङ्ग में उपलब्ध है। वह यह कि जूए का पता लगने पर जब विदुरजी दौड़े हुए आए और इस अनर्थ के लिए धृतराष्ट्र को रोकना चाहा तब एक बार फिर धृतराष्ट्र का मन बदल गया और उन्होंने दुर्योधन को द्यूत न खेलने की समझाइश दी। इसी चर्चा में दुर्योधन ने वह 'झूठ' कहा जिसे आज तक जगत 'सच' मान रहा है।

विदुर की बातों में आकर धृतराष्ट्र कहीं द्यूत के लिए जारी कर दी गई राजाज्ञा वापस न ले लें इसे भाँप दुर्योधन ने तब अंतिम दाँव खेला। उसने कहा जब मैं भ्रमित होकर गिरा और भीम आदि हँसे तब मैं भीम को मारना चाहता था मगर मैंने ऐसा दुस्साहस न किया। जानता था कि श्रीकृष्ण वहाँ खड़े हैं। यदि मैं मारने जाता तो मेरी दशा भी शिशुपाल की तरह हो जाती। मैं क्या करूँ क्योंकि शत्रु के द्वारा किया गया उपहास मुझे दग्ध किए जा रहा है।'

धृतराष्ट्र जब न माना तब दुर्योधन ने जानबूझकर कर अपनी ओर से द्रौपदी का नाम घसीटा और बोला 'द्रौपदी च सह स्त्रीभिव्र्यथयन्ती मनो मम!' हे राजन्! आप समझिए न, उस समय स्त्रियों सहित द्रौपदी भी वहाँ मेरे ह्रदय में चोट पहुँचाती हुई हँस रही थी।

यहाँ तक कि जो बात भीम तक ने न कही थी वह भी उसने नमक मिर्च लगाकर धृतराष्ट्र को कह सुनाई जिसने अंधे राजा के मर्म पर सीधा आघात किया। दुर्योधन ने कहा, 'भीमसेनो तत्रोक्तो धृतराष्ट्रत्मजेति च। सम्बोध्य प्रहसित्वा च इतो द्वारं नराधिप।।' अर्थात महाराज ! वहाँ भीमसेन ने मुझे 'धृतराष्ट्र पुत्र' कहकर संबोधित किया और हँसते हुए कहा, राजन्! दरवाजा इधर है।

फिर वहीं हुआ जो इतिहास है। पहले जूआ और फिर चीर हरण। जो द्रौपदी धीरता, गम्भीरता, लज्जा और वाणी संयम की पर्याय थी उसे भरी सभा में अपमानित करते दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन की न जिव्हा काँपी, न ही हाथों में मर्यादा का अंकुश रहा।

दुर्भाग्य यह कि लोक ने दुर्योधन के झूठ को ही सच मानकर द्रौपदी को वाणी के अपराध में कटघरे में खड़ा कर दिया। अन्यथा महाभारत का पृष्ठ-पृष्ठ जानता है द्रौपदी ने कभी नहीं कहा था 'अंधस्य अंधो वै पुत्र:!' आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी पीढ़ी को वास्तविक सत्य से अवगत कराए। धूर्त अपने मनोरथ साधने के लिए जो पापपूर्ण प्रवंचना करते हैं, उनका लोकोक्ति के रूप में स्थापित हो जाना समाज के लिए शुभ नहीं है। 

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