श्रद्धा ही सद्ज्ञान
*************** श्रद्धा ही सद्ज्ञान **************
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तर्क वितर्क गहन शब्दो की मायाजाल इन्सान को भ्रमित कर देती है। गहन शब्दो की फिलसूफ़ीमे संमोहित शिष्य उन्हें ब्रह्मज्ञान समझने लगता है । ध्यान के प्रयत्नोमे दिखनेवाले चित्र विचित्र दृश्यों को महान उपलब्धि समझने लगता है । समजमें न आये ऐसे विधि विधान , कभी न सुने हो ऐसे विचित्र शब्दो वाले मंत्र या तंत्रमार्ग की जूठी ओर भ्रामक प्रचारलीला से आकर्षित होकर सालो तक खुद महान है ऐसा भ्रम पाल लेता है। दो किताब पढ़नेवाले अधूरे महाज्ञानी सबको सलाह देने लगते है । अध्यात्म मार्ग में अपनी मान्यता , कही पढ़ा सुना , किसी ओरो का अनुसरण करना वो सही मार्ग नही है। हरेक व्यक्ति की आंतरिक शरीर रचना , समजदारी , क्षमता अलग अलग होती है । एक सच्चा साधक व्यक्ति की क्षमता अनुसार जो मार्ग दिखाए वो ही करगत हो सकता है । ऋषियो के आश्रम में सभी शिष्यों को एक जैसी विद्या उपासना नही दी जाती थी । व्यक्ति की आंतरिक पहचान कर उनके अनुरूप विधान दिया जाता था । विधान की क्रिया या मंत्र के शब्द सरल हो या गहन कोई फर्क नही पड़ता । ये कोई रेस्टोरेंट नही है कि आप आपकी पसंद के मेनू ऑर्डर करे । सद्गुरु जो परोसेंगे वो अमृत ही होगा , भरोसा करना सीखें ।
बीमारिमे जब हब डॉक्टर के पास जाते है तो हम उन्हें नही कहते कि डॉक्टर साहब हमे ये ये दावा दीजिये । वो उनका विषय है कि क्या औषध हमारे लिए योग्य है । एक छोटा बच्चा जब माँ को पुकारे तब उन शब्दो मे व्याकरण , वाक्य रचना सब सही है तो ही माँ सुनेगी ?
भाव और श्रद्धा महत्वपूर्ण है । सद्गुरु की आज्ञा ही सर्वोपरि है ऐसी पूर्ण श्रद्धा ही सफलता का मार्ग है ।
" सरल शब्दोंमें गहन ज्ञान और गहन शब्दोंमें अज्ञान "
ये विषय को इस दृष्टांत से समझते है :-
एक मनुष्य ने सुन रखा था कि आध्यात्मिक जगत में कुछ ऐसे गुप्त मंत्र हैं जो यदि किसी को सिद्ध हो जावें तो उसे बहुत सिद्धियाँ मिल सकती हैं। मन्त्रों की अद्भुत शक्तियों के बारे में उसने बहुत कुछ सुन रक्खा था और बहुत कुछ देखा था इसलिए उसे बड़ी प्रबल उत्कंठा थी कि किसी प्रकार कोई मन्त्र सिद्ध कर लें, तो आराम से जिन्दगी बीते और गुणवान तथा यशस्वी बन जावें।
गुप्त मन्त्र की दीक्षा लेने के विचार से गुरुओं को तलाश करता हुआ, वह दूर-दूर मारा फिरने लगा। एक दिन एक सुयोग्य गुरु का उसे पता चला और वह उनके पास जा पहुँचा। वह महानुभाव दीक्षा देने के लिये तैयार न होते थे। पर जब उस मनुष्य ने बहुत प्रार्थना की और चरणों पर गिरा तो उन महानुभाव ने उसे शिष्य बना लिया।
कुछ दिन के उपरान्त उसे गुप्त मंत्र बताने की तिथि नियत की गई। उस दिन उसे पंचाक्षरी मंत्र "ॐ नमः शिवाय" की दीक्षा दे दी और आदेश कर दिया कि इस मंत्र को गुप्त रखना, यह अलभ्य मंत्र औरों को मालूम नहीं है, तू इसका निष्ठापूर्वक जप कर ले तो बहुत सी सिद्धियाँ प्राप्त हो जावेंगी।
शिष्य उस मंत्र का जप करने लगा। एक दिन वह नदी किनारे गया तो देखा कि कुछ लोग पंचाक्षरी मंत्र को जोर-जोर से उच्चारण करके गा रहे थे। शिष्य को सन्देह हुआ कि इसे तो और लोग भी जानते हैं, इसमें गुप्त बात क्या है। इसी सोच विचार में वह आगे नगर में गया तो दिखा कि कितनी ही दीवारों पर पंचाक्षरी मंत्र लिखा हुआ है। वह और आगे चला तो एक पुस्तक विक्रेता की दुकान पर पंचाक्षरी सम्बन्धी कई पुस्तकें देखीं, जिनमें वह मंत्र छपा हुआ था।
अब उसका सन्देह दृढ़ होने लगा। वह सोचने लगा यह तो मामूली मंत्र है और सब पर प्रकट है। गुरुजी ने मुझे योंही बहका दिया है। भला इससे क्या लाभ हो सकता है?
इन सन्देहों के साथ वह गुरुजी के पास पहुँचा और क्रोध पूर्वक उनसे कहने लगा कि आप ने व्यर्थ ही मुझे उलझा रखा है और एक मामूली मंत्र को गुप्त एवं रहस्यपूर्ण बताया है।
गुरु जी बड़े उदार और क्षमाशील थे। उतावले शिष्य को क्रोधपूर्वक वैसी ही उतावली का उत्तर देने की अपेक्षा उसे समझा कर सन्तोष करा देना ही उचित समझा। उन्होंने उस समय उससे कुछ न कहा और चुप हो गये। दूसरे दिन उन्होंने उस शिष्य को बुलाकर एक हीरा दिया और कहा इसे क्रमशः कुँजड़े, पंसारी, सुनार, महाजन और जौहरी के पास ले जाओ और वे जो इसका मूल्य बतावें उसे आकर मुझे बताओ।
शिष्य गुरु जी की आज्ञानुसार चल दिया। पहले वह कुँजड़े के पास पहुँचा और उसे दिखाते हुए कहा इस वस्तु का क्या मूल्य दे सकते हो? कुँजड़े ने उसे देखा और कहा-काँच की गोली है, पड़ी रहेगी, बच्चे खेलते रहेंगे, इसके बदले में पाव भर साग ले जाओ।
इसके बाद वह उसे पंसारी के यहाँ ले गया। पंसारी ने देखा काँच चमकदार है, तोलने के लिए बाँट अच्छा रहेगा।
उसने कहा भाई, इसके बदले में एक सेर नमक ले सकते हो। शिष्य फिर आगे बढ़ा और एक सुनार के पास पहुँचा।
सुनार ने देखा कोई अच्छा पत्थर है। जेवरों में नग लगाने के लिए अच्छा रहेगा। उसने कहा-इसकी कीमत 50 दे सकता हूँ। इसके बाद वह महाजन के पास पहुँचा। महाजन पहचान गया कि यह हीरा है पर यह न समझ सका किस जाति का है, तब भी उसने अपनी बुद्धि के अनुसार उसका मूल्य एक हजार रुपया लगा दिया।
अन्त में शिष्य जब जौहरी के पास पहुँचा तो उसने एक लाख रुपया दाम लगाया। इन सब के उत्तरों को लेकर वह गुरु जी के पास पहुँचा और जिसने जो कीमत लगाई थी वह उन्हें कह सुनाई।
गुरु ने कहा-यही तुम्हारी संदेहों का उत्तर है। एक वस्तु को देखा तो सब ने, पर मूल्य अपनी बुद्धि के अनुसार आँका। मंत्र साधारण मालूम पड़ता है और उसे सब कोई जानते हैं, पर उसका असली मूल्य जान लेना सब के लिए संभव नहीं है। जो उसके गुप्त तत्व को जान लेता है, वही अपनी श्रद्धा के अनुसार लाभ उठा लेता है।
वालिया नामके लुटेरे को नारदजी मिले। राम राम जाप करनेको कहा और बताया कि भगवान आएंगे । चतुर्भुज नारायण का वर्णन बताया । नारदजी के जानेके बाद लुटेरे ने मंत्र जाप शुरू किए ,गलती से मरा मरा मरा जाप किये फिरभी शंख चक्र गदा पद्म धारण किये नारायण ही प्रगट हुवे । न कोई विधान न कोई बड़े स्तोत्र गान या न कोई बीज मंत्र !!
गुरु का वचन ही सिद्ध होता है । गुरुमे पूर्ण विश्वास और उनकी आज्ञा का पालन ही पूर्ण विधान है । वरना ये सभी मंत्र और विधान तो किताबो में इंटरनेट पर भी होते है सीधे वो करने से वो क्यों सफल नही होते ? क्योंकि गुरु उनकी हजारो गुरुओ ,सिद्ध , देव ,ऋषियो की परंपरा से जुड़े हुवे होते है ,उस प्रचंड शक्ति के कारण हमें सफलता मिलती है ।
महान संत तुलसीदास जी ने लिख दिया :-
भवानी शंकरो वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणी
आप सभी के सद्गुरु के रदयमे बिराजमान शिवपिता को कोटि कोटि वंदन सह अस्तु ...श्री मात्रेय नमः
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